रविवार, 10 जुलाई 2011

गज़ल : परिंदा याद का (उषा राजे सक्सेना)

परिंदा याद का, मेरी मुँडेरी पर नहीं आया
कोई भटका हुआ राही पलट कर घर नहीं आया

सभी ने ओढ़ कर चादर उदासी की यही सोचा
शजर पर क्यों बहारों का नया मंजर नहीं आया

मेरे हाथो की गर्मी से कहीं मुरझा न जाए वो
इसी डर से मैं नाज़ुक फूल को छूकर नहीं आया

मुखौटा दरमुखौटा थी हँसी, बस इसलिए ही तो
छुपा था जो मुखौटे में, नजर खंजर नहीं आया

चुभे हैं दिल में तेरे ऐ 'उषा' कुछ दर्द के काँटें
है अचरज क्यों उभर कर आह का इक स्वर नहीं आया ।